न कोई महफ़िल न कोई बियांबर रह गया...
एक अनजाने मंजिल की ख्वाहिश लिए....
मै हर शहर वीरान डगर भटकता रह गया..
खलिश और किवायद लिए अपने आप से जूझता रह गया..
रुख्श और शबाब आये भी तोह कुछ पल के लिए..
मैं पतझड़ में सावन तराशता रह गया...
अब तो जैसे लगता है एक अरसा हो गया मुस्कुराये हुए..
मैं अपनी जद्दोजहद में अरमानो को कुरेदता रह गया...
इक अनजान सी शिकन मेरे चेहरे पे उभरता गया..
मै इक गुमनाम सी डगर पे मुद्दतों ठहर सा गया...
न कोई गिला न कोई शिकवा किसी से रह गया ..
अपनी हस्ती का एहसास लिए मै बरसों तडपता रह गया..
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