इब्तेदा हसरतों को मजबूरियों में ढलते देखा है..
इरादों के शहर को गर्क होते देखा है...
कोई क्या समझेगा ख़ामोशी की जुबान ...
हमने सरे बाज़ार आवाज़ को दबते देखा है...
यकीन था खुले आसमान में उड़ने का...
मगर मजबूरियों को पंख कुतरते देखा है..
हकीकत में लोग क्या आईना दिखाते..
कुछ खास निगाहों को नज़र चुराते देखा है...
कभी मुरीद हुआ करता था दिल जिन वादियों का..
आज उन वादियों को बियांबर होते देखा है..
नुमाइश ही तो करते हैं आज लोग..
हर डगर हर गली तमाशा देखा है...
चंद लम्हों से क्या फासला बढेगा..
सालों को दिनों में बिखरते देखा है..
तुम ना मानो शायद मेरी बात को मगर
लोगों को अपनों से दामन छुडाते देखा है..
जिन मकानों को धूप से सँवारा करते थे..
आज उन्हें अंधियारों में घिरा देखा है..
कुछ अजब से थे इस डगर के मुसाफिर
आज उन्हें दर से बेदखल होते देखा है..
मै शायद कह भी देता अपनी जुबान से..
की मै भी इस बस्ती का बाशिंदा हूँ..
क्या हो गया जो आवारगी में बसर करता हूँ..
कल के लिए ख़ामोशी को इख्तेयार करके देखा है...
वक़्त के पन्नो पर ज़िन्दगी को करवट लेते देखा है..
No comments:
Post a Comment