खिलते हुए इन उजालों में इक सवेरा हो तुम
शीत की नमी सी ओझल एक पल हो तुम..
दूर किसी कायनात में हुई होगी बसर तुम्हारी पर आज मेरे मन का झरोखा हो तुम ...
बरखा की सदाओं में या उन सोख अदाओं में
किसी ग़ज़ल की कशिश या इक नगमा हो तुम..
जो देखूं तारों के ज़मात को या नीले आसमान को
लगता है मेरे ख्वाबों का दायरा हो तुम..
आज खोल दी जो बाहें मैंने
ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी है...
खुश्क इन फिजाओं में मौसिकी
सूरज की किरणे खिलने लगी है...
जो पल गुजरा सिखा गया है कुछ
अब आने वाला पल संवरने लगा है...
धूं धूं कर जलता था कभी सीना
नई उमंगो में खिलने लगा है...
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