गुजरते हुए पलों में एहसास बदल सा गया है
सूखे हुए गुलाब सा मर्म सिमट सा गया है ......
जाने किस अंजान डगर को बढ़ चले हैं कदम
मानो आने वाला हर मंज़र बिखर सा गया है....
बदली हैं इमारतों की तस्वीरें कुछ इस कदर क़ी
बसेरा तो है वही पर सुकून छीन सा गया है..
दूर हो गया है इंसानियत का दामन कहीं
नज़रों क़ी इस फेर में शय हो सा गया है...
कभी चलते थे मंजिल क़ी तलाश लिए
आज वो सफ़र और कारवां खो सा गया है..
इम्तेहान है ये शायद मेरे जूनून का
ख़त क़ी मेरा शीशा जार जार हो गया है...
फिरते थे परिंदे कभी इन फिजाओं में
जो आज गैरों का डेरा बन गया है..
होता था जिन गलियों में सैर सपाटा
आज वो बीता लम्हा बन गया है..
शायद यकीन न आये उन्हें मेरे जस्बातों पे
अब बेगानों पे भरोसा जो हो गया है..
आज भी मिल जाएँगी खोयी निशानियाँ
ख़त क़ी स्याह उन किनारों पर कुछ डूब सा गया है.
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