मंजिल दूर है काफिला चल रहा
माना कोई पहचान नहीं, गुमनाम हूँ मै..
वक़्त के हाशिये ने बढाई है मुश्किलें..
फिर भी उन्ही लम्हों में छिपा इक दास्ताँ हूँ मै...
शायद हुई होगी तुमसे कभी मुलाकात ..गर ना मिले
तो मुसाफिर अनजान हूँ मै..
गर तुम्हे तकलीफ हुई तो परेशां हूँ मै..
गर तुम हँसे तो इक मुस्कान हूँ मै..
फासले बढते हैं...पर रिश्ते नहीं...
इन नातों का निगेहबान हूँ मै..
हो सकता है कभी रूठ जाओ तुम मुझसे..
पर ये ना समझना क़ि तुमसे अनजान हूँ मै..
जाने क्यों लगता है मुझे...
कल से नहीं इक अरसे से तुम्हारी पहचान हूँ मै..
सोचता हूँ तेरे चेहरे पे सजा अरमान हूँ मै...
तू मेरे दर से गुजरे ना गुजरे सही..
पर तेरी यादों क़ि सदाओं में हूँ मै..
दिल कभी आवारा और मुफ्फलिश ही सही...
पर कारवा ए अंजाम हूँ मै...
काका कहते हैं..
रिश्ते नाते बनती थी और रहेंगी..
महफिलें सजती थी और सजती रहेंगी..
तेरी यादें मेरी थी और रहेंगी..
वोह भी इक दौर था और ये भी इक दौर है...
ग़ालिब शायर ही सही पर मै भी इक ग़ज़ल हूँ..
तेरे चेहरे पे खिलने वाला आफताब हूँ मै..
यादों के दमन में लिपटे चिलमन से झांकता इक दौर और पहचान हूँ मै..
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